दिनाँक 1 मई, 1886 को पूरे अमेरिका के 11 हज़ार कारख़ानों के लगभग साढ़े तीन लाख श्रमिकों ने हड़ताल कर दी थी । इस हड़ताल का मुख्य केन्द्र शिकागो शहर था। उनकी माँग थी कि काम के घण्टे को अट्ठारह से घटाकर आठ घण्टे किया जाये और वह भी मज़दूरी में बिना किसी कटौती के। इसके साथ ही कार्यस्थल पर साफ़-सफ़ाई, स्वच्छ पानी आदि जैसी मूलभूत सुविधाओं की व्यवस्था की जाये। बाद में 4 मई को हे मार्किट स्क्वायर गोलीकांड हुआ जिसमें कई मज़दूर मारे गये। पार्सन्स, स्पाइस, एंजेल, पिफ़शर आदि मज़दूर नेताओं को फाँसी के फ़न्दे पर लटका दिया गया। तभी से 1 मई को तीन लाख श्रमिकों के संघर्ष और उनकी वाजिब माँगों के समर्थन में विश्व के अधिकांश देशों में मज़दूर दिवस मनाया जाता है।
महाकाव्य महाभारत में एक प्रसंग आता है जब पाण्डवों द्वारा दिये गये एक भोज में भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने लिए आगन्तुकों की जूठी पत्तल उठाने का काम चुना। अन्य लोगों द्वारा सबसे निम्न समझे जानेवाले काम को वासुदेव ने श्रेष्ठ काम माना। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने श्रम का सम्मान किया।
भारत सरकार श्रम मंत्रालय के अनुसार देश-भर में तक़रीबन 40 करोड़ आबादी असंगठित क्षेत्र में काम करती है। इसका मतलब यह है कि ये लोग आकस्मिक रोज़गार पर आश्रित रहते हैं। सरकार द्वारा चलाई जा रही किसी श्रमिक कल्याण योजनाओं का लाभ इन्हें नहीं मिल पाता है। साथ ही, ये अपनी आवाज़ भी सरकार तक नहीं पहुँचा पाते हैं। ठेकेदार उनका शोषण करते हैं। एक तो उन्हें पूरी मज़दूरी नहीं मिलती और दूसरे महँगाई को बोझ उनके कन्धों को झुका देता है। निर्धारित आठ घण्टे के काम की बजाय 10-से-12 घण्टे काम कराया जाता है। नियोक्ता वर्ग मज़दूरों से बदसुलूकी भी करते हैं। बात-बात पर गाली देना तो उनका शगल हो जाता है, जबकि प्रत्येक व्यक्ति केवल मानव होने के नाते सम्मान का हक़दार होता है। कार्यस्थल पर शौचालय, स्वच्छ पेयजल, छाँव आदि सुविधाओं से आज ही नहीं बल्कि आदि से उन्हें महरूम रखा गया है। सुरक्षा उपकरणों का अभाव और दुर्घटना होने पर प्राथमिक व द्वितीयक चिकित्सा की समुचित व्यवस्था न होना आदि कुछ प्रमुख चुनौतियाँ हैं। इसके अलावा महिला मज़दूरों को एक ओर तो अधिकतर नियोक्ता पुरूषों के बराबर दिहाड़ी नहीं देते हैं और दूसरी ओर उनका दैहिक व मानसिक रूप से शोषण भी किया जाता है। इसे श्रम का अपमान नहीं तो भला और क्या कहा जायेगा ! बाल मज़दूरी तो भीषणतम् समस्या है। जो वक़्त खेलने-कूदने और पढ़ने में बिताया जाना चाहिए, बाल मज़दूर उसे पेट के लिए संघर्ष करने में बिताते हैं।
हम एक ऐसे देश के निवासी हैं जहाँ श्रम और श्रम शक्ति के देवता विश्वकर्मा की पूजा होती है। सभी तरह का श्रम चाहे वह कुशल हो या अकुशल प्रार्थनातुल्य है। श्रम और श्रमिकों को देवता स्वरुप मानते हुये उनका वाजिब हक़ अवश्य ही मिलना चाहिए। विभिन्न अधिकारों और उन्हें इस्तेमाल करने की तक़नीकों के सन्दर्भ में मज़दूरों को जागरूक करना होगा। साथ ही, प्रशासनिक स्तर पर ऐसी व्यवस्था हो कि मज़दूरों के हितों से जुड़े क़ानूनों का नियोक्ता वर्ग उलंघन न कर सकें। श्रमिक वर्ग की प्रगति होगी तभी हम देश को प्रगतिशील बना सकेँगे।