गाँधी जी ने कहा था —
** मैं श्रम अथवा काम के विभाजन में विश्वास करता हूँ। लेकिन मैं मजदूरी की बराबरी पर ज़ोर देता हूँ। वक़ील, डॉक्टर या अध्यापक को भंगी की अपेक्षा ज़्यादा पैसा लेने का हक़ नहीं है। जब यह होगा तब श्रम के विभाजन से राष्ट्र अथवा विश्व का उत्थान होगा। सच्ची सभ्यता अथवा सुख की प्राप्ति का कोई और आसान रास्ता नहीं है।
** एक निश्चत आयु से ऊपर के सभी स्त्री-पुरुषों को वोट देने का अधिकार तभी मिलेगा जब वे राज्य को कुछ शारीरिक सेवा प्रदान करेंगे।
** मुझे ग़लत न समझिए। मैं बौध्दिक श्रम के महत्व को नकार नहीं रहा, लेकिन आप कितना ही बौध्दिक श्रम करें, वह उस शारीरिक श्रम का स्थान नहीं ले सकता जिसे सबकी भलाई के लिए करने के वास्ते हमने जन्म लिया है। वह शारीरिक श्रम से अत्यधिक श्रेष्ठ माना जा सकता है, प्राय: होता भी है पर वह शारीरिक श्रम का स्थानापन्न कदापि नहीं है, और न हो सकता है। यह इसी प्रकार से है जैसे कि बौध्दिक आहार अन्न के दानों से कितना ही श्रेष्ठ हो, पर वह हमारा पेट नहीं भर सकता। सच्चाई तो यह है कि धरती की पैदावार के अभाव में कोई बौध्दिक कार्य सम्भव नहीं है।
** प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सफ़ाई का काम ख़ुद ही करना चाहिए। जितना आवश्यक भोजन करना है उतना ही मलोत्सर्ग भी है, और सर्वोत्तम यही है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी सफ़ाई ख़ुद करे। यदि यह असंभव हो तो प्रत्येक परिवार को तो अपनी सफाई का जिम्मा ख़ुद लेना ही चाहिए।
मैंने वर्षों से यह महसूस किया है कि समाज के एक ख़ास वर्ग को सफाई का जिम्मा देकर कहीं भारी ग़लती की गई है। इतिहास में उस आदमी का कोई उल्लेख नहीं मिलता जिसने सबसे पहले इस अनिवार्य सफाई-सेवा को निम्नतम दर्जा दिया। वह जो भी रहा हो, उसने हमारे साथ किसी अर्थ में भलाई नहीं की।
बचपन से ही हमारे मन में यह बात बैठा दी जानी चाहिए कि हम सभी सफ़ाई पेशा हैं और इसके सबसे आसान उपाय यह है कि हम सब रोटी कमाने के लिए सफ़ाई का काम हाथ में लें। इस प्रकार यदि सफ़ाई का काम बुध्दिमानी से हाथ में लिया जाए तो इंसान की बराबरी को सच्चे रूप में समझने में बड़ी मदद मिलेगी।
** क्या लोगों के लिए बौध्दिक श्रम के द्वारा अपनी रोटी कमाना उचित नहीं है? नहीं। शरीर की आवश्यकता शरीर द्वारा ही पूरी की जानी चाहिए। “जो सीजर का है, वह सीजर को करने दो” -उक्ति शायद यहाँ भी लागू होती है। बौध्दिक कार्य महत्वपूर्ण है और जीवनक्रम में नि:संदेह इसका स्थान है। लेकिन मैं जिस बात पर बल दे रहा हूँ वह शारीरिक श्रम है। मेरा कहना है कि इस दायित्व से किसी को बरी नहीं किया जाना चाहिए। शारीरिक श्रम से मनुष्य के बौध्दिक कार्य की गुणवत्ता में भी सुधार आएगा। मजदूर कुर्सी पर बैठकर लिख नहीं सकता, लेकिन जिस व्यक्ति ने जीवन भर कुर्सी पर बैठकर काम किया है, वह निश्चित रूप से शारीरिक श्रम करना आरम्भ कर सकता है।