रोजगारशून्य आर्थिक विकास :
राष्ट्रीय आय की वृद्धि का आम लोगों की बेहतरी में न बदलने का एक प्रमुख कारण है कि यह रोजगार रहित वृद्धि है। नए रोजगार कम पैदा हो रहे हैं और पुराने रोजगार तथा आजीविका के पारंपरिक स्त्रोत ज्यादा नष्ट हो रहे हैं। कम्प्यूटर-इंटरनेट के नए रोजगारों की संख्या बहुत सीमित है और अमरीका-यूरोप की मंदी के साथ उनमें भी संकट पैदा हो रहा है। रोजगार का संकट मुख्य रुप से निम्न कारणों से गंभीर हुआ है-
- बढ़ता मशीनीकरण और स्वचालन। श्रमप्रधान की जगह पूंजी प्रधान टेकनालाजी को बढ़ावा। दुनिया के बाजार में प्रतिस्पर्धा के लिए इसे जरुरी माना जा रहा है।
- वैश्वीकरण के दौर में छोटे उद्योगों, ग्रामोद्योगों और पारंपरिक धंधों का विनाश। इसमें खुले आयात और विदेशी माल की डम्पिंग ने भी योगदान किया।
- भूमि से विस्थापन – जंगल, नदियों और पर्यावरण के प्रभावों ने भी लोगों की अजीविका को प्रभावित किया है।
रोजगार के मामले में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन यह हुआ है कि कंपनियों ने अब स्थायी मजदूर व कर्मचारी रखना कम कर दिया है और वे अस्थायी, दैनिक मजदूरी पर या ठेके पर (ठेकेदार के मारफत) मजदूर रखने लगी हैं या काम का आउटसोर्सिंग करने लगी है। इससे उनकी श्रम लागतों में काफी बचत हो रही हैं। सरकार ने भी श्रम कानूनों को शिथिल कर इस नाम पर इसे बढ़ावा दिया है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारतीय माल प्रतिस्पर्धी बन सकेगा, निर्यात बढे़गा और भारत में विदेशी पूंजी आकर्षित होगी। किंतु इसका मतलब है कि वास्तविक मजदूरी कम हो रही है और श्रम का शोषण बढ़ रहा है। भारत के मजदूर आंदोलन ने लंबे संघर्ष के बाद जो चीजें हासिल की थी, वे खतम हो रही हैं और भारत पीछे जा रहा है।
अब सरकारी क्षेत्र में भी निजी कंपनियों की इन शोषणकारी चालों की नकल की जा रही है। सरकारी कंपनियों , बैंकों आदि में भी श्रम का शोषण बढ़ रहा है । जैसे- ठेके पर रखे गए इंजीनियर , लाइन कर्मचारी , मीटर रीडर, क्लर्क, सफाई कर्मी, सिक्यूरिटी गार्ड आदि । अब स्कूल कालेजों में भी स्थायी शिक्षकों की जगह ठेका-शिक्षक (अतिथि विद्वान ) लगाए जाते हैं, जिनका वेतन स्थाई शिक्षकों का एक-चौथाई होता है। कई बार उन्हें न्यूनतम मजदूरी भी नहीं दी जाती ।
यह भी गौरतलब है कि औद्योगीकरण के प्रयासों के छः दशक और उदारीकरण के दो दशक बाद भी भारत की कुल श्रम शक्ति का 7 फीसदी से भी कम संगठित क्षेत्र में है। बाकी पूरी आबादी असंगठित क्षेत्र में हैं जिनमें किसान, पशुपालन, मछुआरे, खेतीहर मजदूर, हम्माल, घरेलू नौकर, असंगठित मजदूर, फेरीवाले, दुकानदार आदि है। अर्थव्यवस्था की प्रगति के बावजूद भी इनकी हालत खराब है। भारत की युवा आबादी की बेहतरी और इस कथित विकास में भागीदारी कब और कैसे होगी ?
