ऋषी

आज ऋषि पंचमी है

कश्यपोत्रिर्भरद्वाजो विश्वामित्रोथ गौतमः। जमदग्निर्वसिष्ठश्च सप्तैते ऋषयः स्मृताः॥

भारतीय दर्शन में वेद को प्रमाण इसलिए माना है कि वेद में सत्य का साक्षात दर्शन अंतर्ज्ञान के द्वारा माना गया हैं। अंतर्ज्ञान का स्थान तार्किक ज्ञान से ऊँचा है। यह इन्द्रियों से होने वाले प्रत्येक ज्ञान से भिन्न है। इस ज्ञान द्वारा ही सत्य का साक्षात्कार हो जाता है। इस प्रकार वेद, दृष्टा ऋषियों के अंतर्ज्ञान का भण्डार है। दर्शन को स्पष्ट करने के पीछे यह उद्देश्य है कि वही व्यक्ति सार्थक है जो अपने जीवन में ही दृष्टा बन जाता है और जो दृष्टा बन जाता है वह ऋषि बन जाता है। ऋषि व्यक्तित्व होने के लिए अंतर्ज्ञान व अंतर्दृष्टि का पूर्ण विकास होना आवश्यक है।

हमारे ऋषि, बड़े ही चेतनावान, दिव्ययुग पुरूष थे, जिन्होंने मानव के जीवन में विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार विभिन्न साधनायें विकसित की, जिनके द्वारा व्यक्ति अपना अभीष्ट पूर्ण कर सकें। ऋषि वे उच्चतम कोटि के योगी, यति होते हैं जो पूर्ण रूप से ब्रह्ममय हो जाते हैं और जिनके लिए असम्भव नाम की कोई स्थिति नहीं होती। ऋषि ही वास्तव में इस ब्रह्माण्ड के नियता हैं, उनकी सूक्ष्म, नियंत्रण तरंगों के माध्यम से ही, समस्त ब्रह्माण्ड गतिशील है।

ऋषि का अर्थ ही उस व्यक्तित्व से है, जिसने समस्त ज्ञान विज्ञान को आत्मसात् किया है। अनेक स्त्रियों को भी ऋषि का स्थान प्राप्त हुआ ।

वे सही अर्थों में मनुष्य थे, क्योंकि अपने जीवन की सभी डोर उनके स्वयं के हाथ में थी और अगर हम अपने पूर्वजों की स्थिति तक न भी पहुँच पाये तो कम से कम उन स्थितियों को तो अपने जीवन में उतार ही लें, जिससे हमारा मनुष्य होना सार्थक हो सके।

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