गोवर्धन पूजा

 गोवर्धन पूजा का संबंध भगवान कृष्ण और गोवर्धन पर्वत की पूजा से है, जो इस बात का प्रतीक है कि भगवान प्रेम से पूजे जाते हैं, न कि भय से। गोवर्धन पूजा की कथा में बताया गया है कि गांववाले इंद्र देव की पूजा करते थे क्योंकि उन्हें डर था कि अगर वे इंद्र की पूजा नहीं करेंगे, तो उन्हें बारिश नहीं मिलेगी और उनके खेत बर्बाद हो जाएंगे।

भगवान कृष्ण ने लोगों को समझाया कि पूजा भय के कारण नहीं बल्कि प्रेम और कृतज्ञता से होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि गोवर्धन पर्वत, जो गांववासियों की रक्षा करता है और उनके पशुओं के लिए चारा प्रदान करता है, उनके लिए अधिक महत्वपूर्ण है। इस पर सभी ने मिलकर गोवर्धन पर्वत की पूजा की। इंद्र ने नाराज़ होकर भारी बारिश शुरू कर दी, लेकिन भगवान कृष्ण ने अपनी छोटी उंगली पर गोवर्धन पर्वत उठाकर सबको सुरक्षित किया।

इस कथा का संदेश यही है कि भगवान को प्रेम, श्रद्धा और समर्पण से पूजना चाहिए, न कि भय से। कृष्ण ने यह सिखाया कि ईश्वर प्रेम और सेवा भाव के प्रतीक हैं, और उनके साथ सच्चा संबंध केवल प्रेम से ही बन सकता है, न कि डर से।

कृष्ण द्वारा इंद्र की पूजा रोकने के बाद उन्होंने गोवर्धन पर्वत की पूजा का प्रस्ताव रखा। इसके बाद गांववालों ने गोवर्धन पर्वत, गौधन (गायों), और प्रकृति की पूजा की, क्योंकि कृष्ण ने उन्हें समझाया कि प्रकृति के तत्व, जो उन्हें प्रत्यक्ष रूप से सहायता और संरक्षण प्रदान करते हैं, उनकी वास्तविक पूजा के पात्र हैं।

इस पूजा में सभी ने मिलकर गोवर्धन पर्वत को प्रतीकात्मक रूप से अन्नकूट का भोग लगाया और विभिन्न प्रकार के पकवानों का अर्पण किया। इसके अलावा, गायों और बछड़ों का पूजन कर उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की। इस प्रकार, गोवर्धन पूजा के दिन मुख्य रूप से गोवर्धन पर्वत, गौधन और प्रकृति की पूजा की गई, जो एक नई चेतना और भक्ति का प्रतीक बन गई।

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