भगवद् गीता में ध्यान योग (अध्याय 6: ध्यान योग) को मन की एकाग्रता और आत्मनियंत्रण के माध्यम से आत्मा और परमात्मा का साक्षात्कार करने का साधन बताया गया है। इसे साधना की एक प्रक्रिया के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जिसके द्वारा व्यक्ति अपने मन को नियंत्रित कर, ध्यान के माध्यम से, अपने भीतर स्थित आत्मा और परमात्मा को अनुभव कर सकता है।
ध्यान योग के कुछ प्रमुख पहलू निम्नलिखित हैं:
1. मन का नियंत्रण: भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि मन बड़ा चंचल होता है, परंतु अभ्यास और वैराग्य के द्वारा इसे वश में किया जा सकता है। मन को इधर-उधर भटकने से रोककर उसे आत्मा पर केंद्रित करना ध्यान योग का प्रमुख उद्देश्य है।
2. साधना की विधि: ध्यान योग में व्यक्ति एकांत स्थान पर बैठकर, शरीर और मन को स्थिर कर, ध्यान के द्वारा आत्मा पर ध्यान केंद्रित करता है। ध्यान करते समय सीधा बैठने, श्वास पर ध्यान केंद्रित करने, और ईश्वर पर मन को लगाकर साधना करने की सलाह दी गई है।
3. समता भाव: ध्यान योग के माध्यम से साधक अपने भीतर और बाहर समता भाव को प्राप्त करता है, अर्थात सुख-दुख, लाभ-हानि, सफलता-असफलता जैसे द्वंद्वों से परे होकर परम शांति का अनुभव करता है।
4. अभ्यास और संयम: ध्यान योग में निरंतर अभ्यास और संयम की आवश्यकता होती है। नियमित साधना से मन को नियंत्रित किया जा सकता है, जिससे अंततः आत्मा का ज्ञान और मुक्ति प्राप्त होती है।
गीता में ध्यान योग को ईश्वर की अनुभूति का साधन बताते हुए कहा गया है कि जब व्यक्ति अपने मन को नियंत्रित कर, ध्यान की अवस्था में स्थित होता है, तब उसे आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति होती है और वह परमात्मा से एकाकार हो जाता है।