सांसारिक जीवन में निष्काम भाव से कर्म करना यानि बिना किसी स्वार्थ, फल की इच्छा या अहंकार के अपने कर्तव्यों को निभाना है। यह कठिन प्रतीत हो सकता है, लेकिन इसे अभ्यास से अपनाया जा सकता है। यहां कुछ सुझाव दिए जा रहे हैं:
1. कर्तव्य को प्राथमिकता दें
अपने कर्म को धर्म (कर्तव्य) मानें और उसे पूरी निष्ठा से करें । यह समझें कि कर्म का उद्देश्य केवल कार्य को पूर्ण करना है, न कि उसके परिणाम पर अधिकार जताना।
2. फल की आसक्ति का त्याग करें
अपने कार्यों का परिणाम ईश्वर या प्रकृति पर छोड़ दें।
यह समझें कि परिणाम आपके हाथ में नहीं है; केवल कर्म पर आपका अधिकार है।
जैसे किसान बीज बोता है और फसल उगने की प्रक्रिया को प्रकृति पर छोड़ देता है, वैसे ही अपने कार्यों का फल छोड़ दें।
3. स्वार्थ त्यागें
कर्म को व्यक्तिगत लाभ, प्रसिद्धि, या सम्मान के लिए न करें। कर्म को समाज, परिवार, या ईश्वर की सेवा के रूप में देखें।
4. साक्षी भाव अपनाएं
अपने कार्य और उसके परिणाम को ईश्वर की इच्छा या प्रकृति का खेल मानें।
अपने आप को केवल एक माध्यम समझें। यह साक्षी भाव अहंकार और आसक्ति को कम करता है।
5. धैर्य और समता रखें
सफलता और असफलता को समान रूप से स्वीकार करें।
गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है, “सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।” अर्थात सफलता और विफलता में समान भाव रखना ही योग है।
6. आत्म-अनुशासन और ध्यान का अभ्यास करें
ध्यान और आत्मचिंतन से मन को शांत और स्थिर बनाएं।
जब मन शांत होगा, तो आसक्ति और अहंकार स्वतः कम हो जाएगा।
7. ईश्वर या उच्च शक्ति को समर्पण
अपने सभी कार्य ईश्वर को समर्पित करें। यह भाव आपको अहंकार और स्वार्थ से मुक्त करता है।
यह विचार करें कि आप ईश्वर के माध्यम से ही कर्म कर रहे हैं।
8. वर्तमान में रहें
अपने कार्य को पूरी तरह से वर्तमान में केंद्रित होकर करें।
भविष्य के परिणाम की चिंता छोड़कर, केवल वर्तमान क्षण में कर्म का आनंद लें।
निष्काम भाव से कर्म करने का अर्थ है कि आप कार्य को अपना धर्म मानकर करें और फल की चिंता ईश्वर पर छोड़ दें। यह न केवल मन को शांति प्रदान करता है, बल्कि जीवन को तनावमुक्त और आनंदमय बनाता है। गीता के अनुसार, ऐसा कर्म ही सच्चा योग है और यही मोक्ष की ओर पहला कदम है।