पंचांग : भाग -2

 

 

विश्व का सर्वाधिक वैज्ञानिक कलेंडर है हमारा पंचांग : भाग -2

प्राचीन काल से अब तक विभिन्न देशों में प्राचीन सभ्यताओं में सैंकड़ों कैलेंडर प्रयुक्त हुए हैं, वे या तो चन्द्र आधारित थे या फिर सूर्य
आधारित . इसलिए उनमे अनेक त्रुटियाँ भरी पड़ी हैं . अ
गर चंद्रमासों को रखना हो, तो सौर वर्ष के साथ उनका संबंध बिठाना पड़ेगा . कृषिकर्म के लिए ऋतुओं
की जानकारी अत्यावश्यक है
. किसानों को वर्ष भर में होने
वाले ऋतु-परिवर्तनों की जानकारी देने के लिए कैलेंडर की ज़रूरत पड़ती है
. निश्चित तिथियों पर धार्मिक पर्व व उत्सव मनाने
पड़ते हैं
, ये
प्रायः कृषिकर्म से ही जुड़े होते हैं
, परंतु इनके लिए और
भी अधिक शुद्ध कैलेंडर (पंचांग) की आवश्यकता होती है
.
. मगर एक व्यावहारिक वैज्ञानिक कैलेंडर तैयार करना किसान के बस की बात नहीं
है
, क्योंकि
इसके लिए
खगोलशास्त्र का विशद ज्ञान और लंबी अवधि तक लेखा-जोखा रखना आवश्यक होता है. यह काम ब्राह्मण –पुरोहित-ज्योतिषी ही कर सकते थे . सौर वर्ष 365.2422 दिनों का और चंद्र मास 29.53059
दिनों का स्वीकार किया गया था
और फिर वैज्ञानिक
पद्धति से
चंद्र मासों को  सौर वर्ष में समायोजित कर दिया गया था . सिंधु सभ्यता मुख्यतया कृषिकर्म पर आधारित
रही है
, इसलिए
बहुत संभव है कि वहाँ एक मिला जुला सौर-चंद्र कैलेंडर प्रचलित रहा हो
. ऋग्वेद के कतिपय
उल्लेखों से जानकारी मिलती है कि उस समय 
सौर-चंद्र कैलेंडर का प्रचलन था और अधिमास जोड़ने की व्यवस्था थी. परंतु १२
मासों के नामों का ऋग्वेद में उल्लेख नहीं है
, न ही यह पता चलता है कि अधिमास को किस तरह जोड़ा जाता था. दिनों को नक्षत्रों
से व्यक्त किया जाता था
, अर्थात  रात्रि को चंद्र जिस नक्षत्र में दिखाई देता था
उसी के नाम से वह दिन जाना जाता था. बाद में तिथियाँ भारतीय पंचांग की मूलाधार बन
गईं
, किंतु ऋग्वेद में तिथिका कहीं कोई ज़िक्र नहीं है. ऋग्वैदिक काल में वर्ष संभवतः 366
दिनों का माना गया था. चंद्र वर्ष (
354 दिन) में 12 दिन जोड़ कर 366 दिनों का सौर वर्ष बनाया गया होगा.
ऋग्वेद में
वर्षशब्द नहीं है, मगर शरद, हेमंत आदि शब्दों का काफ़ी प्रयोग हुआ है.

यजुर्वेद में 12
महीनों के और
27 नक्षत्रों तथा उनके देवताओं के नाम दिए गए
हैं. साथ ही
, सूर्य के उत्तरायण तथा
दक्षिणायन गमन के भी उल्लेख है. यजुर्वेद में बारह महीनों के नाम मधु
, माधव, शुक्र, नभ, तपस आदि है, जो सायन वर्ष के मास जान पड़ते हैं. हमारे देश में चैत्र, वैशाख आदि चंद्र मास बाद में अस्तित्व में
आए. यजुर्वेद में ही पहली बार
तिथिशब्द देखने को मिलता है. इससे पता चलता है
कि वर्तमान पंचांग यजुर्वेद के समय पूर्ण अस्तित्व में आ चुका था .
  

हमारे देश में ज्योतिष का जो सबसे प्राचीन
स्वतंत्र ग्रंथ उपलब्ध हुआ है वह महात्मा लगध का
वेदांग-ज्योतिष‘ (लगभग
800 ई. पू.) है. वेदांग-ज्योतिष के अनुसार एक चंद्र मास में 29.516 दिन होते हैं
(वास्तविक संख्या
29.531 दिन हैं). वर्ष 366 सावन दिनों का माना गया है. वेदांग-ज्योतिष में बताया गया है कि किन तिथियों का क्षय होता है. भारतीय पद्धति में तिथियाँ क्रमानुसार नहीं आतीं, अक्सर एक तिथि छूट जाती है. छूटी हुई तिथि को
ही क्षय तिथि कहते हैं
. जैसे, तृतीया
के बाद अगली तिथि चतुर्थी न होकर पंचमी हो सकती है
. तब
कहा जाएगा कि चतुर्थी का क्षय हो गया
. तिथियों के क्षय
होने का कारण यह है कि एक चंद्र मास के लगभग
29 1/2 दिन
होते हैं और तिथियाँ
30 होती हैं. इसलिए लगभग दो महीनों में औसतन एक तिथि का क्षय होता है. महाभारत, रामायण और जैनों के सूर्य प्रज्ञप्ति
जैसे ग्रंथों का कैलेंडर काफ़ी हद तक वेदांग-ज्योतिष के कैलेंडर से मिलता-जुलता
रहा है
.  पता चलता है कि सम्राट अशोक के समय (लगभग 250 ई पू.) में
वेदांग-ज्योतिष का ही कैलेंडर प्रचलित था
. अशोक के
अभिलेखों में उसके शासन-वर्षों का उल्लेख है
, न कि किसी
संवत का
. आर्य भट्ट के समय से  कलियुग के आरंभ (3102 ई. पू.) से गणनाएँ
करने की परिपाटी चली
. वराहमिहिर द्वारा वर्णित पाँच सिद्धांतों
(सूर्य-सिद्धांत
, पितामह-सिद्धांत, रोमक-सिद्धांत, पुलिश-सिद्धांत और वसिष्ठ सिद्धांत) का उपयोग पंचांग बनाने
में किया जाने लगा .
जिस भारतीय अभिलेख में पहली बार एक वारका उल्लेख हुआ है वह बुधगुप्त के समय का एरण (मध्य प्रदेश) से प्राप्त 484 ई. का है वहाँ तिथि (आषाढ़ शुक्ल द्वादशी) और वार (सुरगुरु दिवस,
यानी बृहस्पतिवार) दोनों का उल्लेख है
.

लग्न व राशि – किसी समय पूर्वी क्षितिज पर
जो राशि उदित हो रही होती है उसके कोण को लग्न कहते हैं.
यदि पूरे
आसमान को
360 डिग्री का
मानकार उसे
12 भागों में
बांटा जाये तो
30 डिग्री की एक
राशि निकलती है
. राशियों के नाम आकाश के
उस भाग में उपस्थित तारामंडल को देख कर किसी प्राणी अथवा वस्तु के आकार की प्रतीति
पर रखे गए हैं – जैसे मेष , वृष, सिंह आदि.
इन्ही 12 राशियों में से कोई
एक राशि
किसी समय पूर्व दिशा ( क्षितिज ) में स्थित होती है, वह लग्न कहलाती है .एक लग्न समय लगभग दो घंटे का होता है. इसलिये दो घंटे के बाद लग्न समय स्वत: बदल जाता
है
.

मास – पंचांग में पांच अंगो के
साथ मास और वर्ष का भी तिथि के साथ होना आवश्यक है .
12 मासों के नाम चैत्र , वैशाख , ….आदि
हैं. चूँकि चन्द्र मास
29.53059  दिनों का है और सौर वर्ष 365.2422 दिनों का अतः सौर वर्ष में चन्द्र मास एडजस्ट करने पर 30x12 = 360 दिन ही हो पायेंगे और 5 दिन प्रतिवर्ष के हिसाब से
6 वर्ष में 30 दिन या एक माह बच जाएगा . इसलिए भारतीय कलेंडर में अधिमास की
परम्परा है. जिसे 13 वा मास कहा जाता है. अधिमास जोड़ने का नियम पूर्णतः वैज्ञानिक है
जिसे अंतर्निवेशन पद्धति कहते हैं . अधिमास के कारण प्रत्येक मास 30 दिन का हो पाता
है,
और माह तथा ऋतुओं की एकरूपता मौजूद है .
अधिमास ना होने के कारण जहाँ अंग्रेजी कलेंडर में 28 29 30
31 दिनों के अलग अलग महीने आते है और लीप
इयर भी रखना पड़ता है . वही मुस्लिम कलेंडर केवल चाँद आधारित होने के कारण माह और
ऋतुओं का सम्बन्ध नहीं है . मुस्लिम कलेंडर हर साल 11 दिन छोटा होता जाता है
.मुहर्रम कभी जनवरी में आता है तो कभी अप्रैल में तो कभी अगस्त में . अज्ञानतावश मुसलमानी
वर्ष केवल 354 दिनों का हो गया और लगभग 33 वर्षों में उनके सभी उत्सव वर्ष के सभी
मासों में घूम जाते हैं. इसलिए भारत में मुस्लिम शासकों को कर संग्रहण करने के लिए
फसली – वर्ष चलाना पड़ता था .

आकाशमंडल  के बारह भाग जो राशि कहलाते
हैं उनमे सूर्य को पार करने में जितना समय लगता है उतना एक सौर मास कहलाता है . एक
राशि से सूर्य दूसरी राशि में दिन के किसी भी समय में जाता है जिसे खगोलीय मास
कहते है , किन्तु आमजन के लिए मास उस दिन के सूर्योदय से ही प्रारम्भ होता है .
सूर्य के राशि परिवर्तन का समय पंचांग में लिखा रहता है . सूर्य के एक राशि को पार
कर अगली राशि में प्रवेश करने को संक्रांति कहते है . ऐसी
12 संक्रांतिया प्रति वर्ष होती हैं . मेष
संक्रांति का मतलब है कि सूर्य ने मेष राशि
में प्रवेश कर लिया है . इस प्रकार खगोलीय सौर मास एक संक्रांति से दूसरी
संक्रांति की कालावधि है . सौर मास का उपयोग सौर पर्वों में होता है . किन्तु
व्यावहारिक रूप से चन्द्र मास ही उपयोगी है जो कि अमावस्या से अगली अमावस्या या
पूर्णिमा से अगली पूर्णिमा तक चलते हैं . 
मासों के नाम नक्षत्रो पर आधारित हैं जैसे जब चन्द्र चित्रा नक्षत्र में
आता है तो उस मास को चैत्र कहते है , विशाखा नक्षत्र से वैशाख , अश्विनी से अश्विन
, मघा से माघ , ज्येष्ठा से ज्येष्ठ , भाद्रपद से भाद्र आदि .

वर्ष – वर्ष यानि साल को पंचांग
में संवत्सर , वत्सर , संवत , अब्दा , हय्ना , सम , आदि कहा गया है . इनका सम्बन्ध
ऋतुओं से जुड़ा है . वर्ष का सम्बन्ध वर्षा से है (भारत में वर्षा का बहुत महत्व है
) . संवत्सर का मतलब ऋतुओं का एक चक्र पूर्ण होना है . वर्ष के दो हिस्से किये गए है
– पहला हिस्सा जिसमे सूर्य उत्तर दिशा से परिभ्रमण करता है ( उत्तरायण ) और दूसरा
हिस्सा  जिसमे सूर्य दक्षिण  दिशा से परिभ्रमण करता है ( दक्षिणायन ).

ऐसा लगता है कि आर्यभट्ट के सूर्यसिद्धांत से पूर्व भारतीय गणितज्ञों और
खगोलशास्त्रियों को
precision of equinox की जानकारी नहीं थी. शायद उनको नहीं पता था की मेषराशि का पहला बिंदु स्थिर है
अथवा दोलन करता है . इस कारण वे माध्य सायन वर्ष ( tropical year ) और निरयन वर्ष (
sidereal year) में अंतर नहीं कर पाते थे . किन्तु बाद के ब्राह्मणों ने इस कमी को
पूरा कर लिया . माध्य सायन वर्ष को पंचांग में स्वीकार करने पर ही मास और ऋतुओं का
तालमेल बना रहेगा .

कुंडली – भारतीय मनीषियों के मस्तिष्क
की पराकाष्ठा है कुंडली. कुंडली आकाशमंडल में किसी समय पर उपस्थित ग्रहों की
स्तिथियों का चार्ट है जो तालिका के रूप में दर्शाया जाता है . कुंडली में सूर्य
चन्द्र अन्य ग्रहों  के अतिरिक्त राहू केतु
भी दर्शाए जाते हैं . खगोलशात्र में राहू और केतु चन्द्र की कक्षा के उच्च व निम्न
सम्पाती बिंदु हैं.

 कुंडली किसी विशेष समय (जैसे किसी
व्यक्ति का जन्म समय ) पर ग्रहों की स्तिथि को अभिलेखित करने की तालिका होती है .
यह एक चतुर्भुज है , जिसके 12 हिस्से आकाशमंडल की 12 राशियों को दर्शाते हैं . पहली लाइन का केंद्र वाला भाग ( खाना  ) उस राशिखंड को दर्शाता है जो उस समय पूर्वी
क्षितिज में है (अर्थात लग्न ). इसके बाद घडी की सुई की उलटी दिशा से अन्य खानों
में  राशियाँ क्रमानुसार मानी जाती हैं . इन
खानों में लिखी गयी संख्या वह राशि प्रगट करती हैं . इसके पश्चात् खगोलीय गणना से
इन खानों (राशियों ) में आकाशमंडल में स्थित ग्रहों को अंकित कर दिया जाता है .
यद्यपि कुंडली का उपयोग भविष्यफल बताने में किया जाता है परन्तु इसका मुख्य कार्य
इतिहास की घटनाओं की डेट बताना और वर्तमान घटनाओं का भविष्य के लिए रिकॉर्ड रखना है.
जैसे जिस दिन महाभारत युद्ध आरंभ हुआ महर्षि व्यास ने सभी ग्रहों की स्तिथि देख कर
कुंडली रूप में अंकित कर दिया . उस कुंडली से महाभारत युद्ध की तिथि
16 अक्तूबर  5561 B.C. निकलती है . इसी प्रकार अनेक पौराणिक घटनाओं के समय की कुंडलिया उपलब्ध है
जिनसे खगोलीय गणना कर तारिख निकाली जा सकती है .

अंग्रेजी राज के कारण ईसाई अथवा ग्रेगोरी भले ही लगभग सार्वभौमिक
बन गया हो
, मगर व्यावहारिक तौर पर इसमें अनेक
त्रुटियाँ हैं
. महीने के दिन
28 से 31 तक बदलते हैं, चौथाई वर्ष में 9 से 92 दिन होते हैं, और वर्ष के दो हिस्सों में 181184 दिन होते हैं. महीनों में सप्ताह के दिन भी स्थिर नहीं रहते, महीने और वर्ष का आरंभ सप्ताह के किसी भी दिन से
हो सकता है
. इससे नागरिक और आर्थिक जीवन में बड़ी कठिनाइयाँ पैदा होती हैं. महीने में काम करने के दिनों की संख्या भी 24 से 27 तक बदलती रहती है. इससे
सांख्यिकीय विश्लेषण और वित्तीय जमा-खर्च तैयार करने में बड़ी दिक्कतें होती हैं
. फिर भी हम अपने वैज्ञानिक कलेंडर (हिन्दू पंचांग) को छोड़ कर नकली और
त्रुटिपूर्ण कलेंडर अपनाये हुए हैं.
  अंग्रेज चले गये पर उनके मानसपुत्रों की कमी नहीं
है
.
आज अंग्रेजी कैलेंडर का प्रयोग अधिक ज़रूर
होता है पर हिन्दू कैलेंडर के महत्व पर इससे कुछ खास हानी नहीं हुई है.
आज भी हम अपने व्रत, त्यौहार, महापुरुषों की जयंती, पुण्यतिथि, विवाह आदि शुभ कार्य करने के लिए मुहूर्त इसी के माध्यम से देखते हैं. अब इसे संयुक्त
राष्ट्र संघ के माध्यम से  विश्व कलेंडर
बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए . 

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