शून्य की अवधारणा

 पश्चिमी दर्शन में शून्य (जीरो) का अर्थ है – कुछ नही (nothing) लेकिन हिन्दू और बौद्ध दर्शन में शून्य की अवधारणा एक गहरा और जटिल विषय है जो कि विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोणों के माध्यम से प्रकट किया गया है। 

1. हिन्दू दर्शन में शून्य की अवधारणा

हिन्दू दर्शन में “शून्य” एक महत्वपूर्ण अवधारणा है, लेकिन इसे केवल ‘नहीं’ या ‘जीरो’ के रूप में नहीं समझा जाता है। यह अस्तित्व के पार एक स्थिति या अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है। वेदों, उपनिषदों और भगवदगीता में शून्य को कभी-कभी “ब्रह्म” या “परब्रह्म” के रूप में संदर्भित किया जाता है।

 अद्वैत वेदांत में, शून्य का अर्थ है “निर्गुण ब्रह्म” या “अपरिभाषित ईश्वर”, जो न कोई गुण है, न कोई रूप, न कोई रंग, बल्कि वह शुद्ध चेतना है। यह ब्रह्म एकता और अखंडता का प्रतीक है, जहाँ द्वैत (द्विविधा) समाप्त हो जाता है।

पतंजलि के योग सूत्रों में, शून्यता का अर्थ “चित्त वृत्ति निरोध” से है, अर्थात् मन की सभी गतिविधियों और इच्छाओं को रोकने की स्थिति। इस अवस्था में व्यक्ति को आत्म-साक्षात्कार प्राप्त होता है, जिसे शून्यता या कैवल्य भी कहा जाता है।

ब्रह्मांड और शून्य: हिन्दू गणित में, शून्य (0) का भी महत्व है, जिसका आविष्कार वैदिक ऋषि गणितज्ञों द्वारा किया गया था। यह शून्य असीम और अनंत के मध्य का संतुलन है।

पूज्यं दशगुणं शून्यं शून्यं दशगुणं पुनः।

पूज्यं पूज्यं दशगुणं शून्यं शून्यं पुनः पुनः॥

अर्थात –

शून्य पूज्य है क्योंकि जिसके पीछे लग जाये उसे दसदस  गुना करता जाता है 

ईश्वर से संबंध: हिन्दू दर्शन में शून्यता को अक्सर ब्रह्म, जो साकार और निराकार दोनों है, के साथ जोड़ा जाता है। यह एक ऐसी अवस्था है जिसमें व्यक्ति ईश्वर को उसके निराकार और अप्रकट रूप में अनुभव करता है। कबीर ने कहा है- गिरह हमारा सुन्य में ….. अर्थात हमारा वास्तविक निवास शून्य में है । 

2. बौद्ध दर्शन में शून्य की अवधारणा

बौद्ध दर्शन में “शून्यता” (संस्कृत में “शून्यता” और पाली में “सुन्नता”) एक केंद्रीय अवधारणा है। यह अस्तित्व की अस्थिरता और असत्यता का प्रतीक है। बौद्ध धर्म में, शून्यता का अर्थ है कि सभी चीजें अस्थायी और निर्भरता से उत्पन्न हैं; उनमें कोई स्थायी आत्मा या स्थायी तत्व नहीं है।

मध्य्यमक दर्शन: नागार्जुन के मध्य्यमक दर्शन में, शून्यता को “प्रतीत्यसमुत्पाद” (परस्पर निर्भरता) के संदर्भ में समझा जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि सभी घटनाएं और वस्तुएं परस्पर निर्भरता से उत्पन्न होती हैं, और उनमें कोई स्थायी स्वरूप नहीं होता।

विपश्यना और ध्यान: बौद्ध साधना में, ध्यान का उद्देश्य “शून्यता” की प्रत्यक्ष अनुभूति प्राप्त करना है, जो यह समझने में सहायक है कि दुनिया की सभी चीजें अनित्य, दुःख और अनात्म (स्वरूपहीनता) हैं।

 बौद्ध धर्म में, शून्यता का ईश्वर की परिभाषा से कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं है। बौद्ध धर्म में एक व्यक्तिगत ईश्वर या सर्वशक्तिमान की अवधारणा नहीं है। शून्यता यहाँ आत्मज्ञान और निर्वाण प्राप्त करने की दिशा में एक मार्ग के रूप में समझी जाती है, जो अस्तित्व के द्वैत को समाप्त कर देती है।

हिन्दू दर्शन में, शून्यता को ब्रह्म (ईश्वर) की स्थिति के रूप में समझा जाता है, जहाँ व्यक्ति सत्य के साकार और निराकार दोनों पहलुओं को अनुभव कर सकता है।

बौद्ध दर्शन में, शून्यता का अर्थ सभी चीजों की निर्भर उत्पत्ति और अस्तित्व के स्थायित्व की अनुपस्थिति है। यह ईश्वर की अवधारणा से संबंधित नहीं है, बल्कि आत्मज्ञान की प्राप्ति की दिशा में एक महत्वपूर्ण तत्व है।

दोनों दर्शनों में शून्यता की अवधारणा अस्तित्व की मौलिकता और वास्तविकता की समझ को गहरा करती है, चाहे वह ब्रह्म की निराकार अवस्था हो या अस्तित्व की अस्थिरता।

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