सर्ग और विसर्ग सृष्टि के निर्माण और विकास के दो चरणों को दर्शाते हैं। ये भारतीय दर्शन और पुराणों में वर्णित सृष्टि प्रक्रिया से जुड़े हैं।
1. सर्ग (प्रारंभिक सृष्टि)
सर्ग का अर्थ है सृष्टि का मूल निर्माण। यह भगवान या ब्रह्मा द्वारा ब्रह्मांड की उत्पत्ति का प्रथम चरण है। इसे “प्राकृतिक सृष्टि” भी कहा जा सकता है।
यह सृष्टि के मूल तत्वों और प्राणियों का निर्माण है।
इसे भगवान की “मूल रचना” माना जाता है, जैसे पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश)।
इसमें 10 प्रकार की सृष्टियों का वर्णन है, जिन्हें दश सर्ग कहते हैं, जैसे:
1. महत्तत्त्व (बुद्धि तत्व)
2. अहंकार
3. पंचमहाभूत
4-8. पंचतन्मात्राएँ (गंध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द)
9. इंद्रियाँ और उनके अधिष्ठाता देवता
10. मन आदि।
2. विसर्ग (द्वितीयक सृष्टि)
विसर्ग का अर्थ है सृष्टि का विस्तार या विकास। यह ब्रह्मा द्वारा जीवों और संसार के विविध रूपों का निर्माण है।
इसमें जीवों का जन्म, उनके कर्म, और संसार में उनके क्रियाकलाप आते हैं।
जीवों को उनके कर्मों के अनुसार जीवन प्रदान किया जाता है।
यह मानव, पशु, वनस्पति आदि जीवित प्राणियों की रचना और उनकी दिनचर्या से संबंधित है।
इसे “द्वितीयक सृष्टि” भी कहा जाता है।
सर्ग और विसर्ग का संबंध-
सर्ग ब्रह्मांड और उसके मूलभूत तत्वों का निर्माण करता है। विसर्ग उन तत्वों का विस्तार करके विविध जीवन रूपों और संसार की रचना करता है।
यह प्रक्रिया चक्रीय मानी जाती है और प्रत्येक सृष्टि के बाद प्रलय होता है, जिसके बाद सर्ग और विसर्ग पुनः आरंभ होते हैं।
सर्ग और विसर्ग का वर्णन विष्णु पुराण, भागवत पुराण, और महाभारत में मिलता है।
यह प्रक्रिया ब्रह्मा, विष्णु, और शिव के त्रिदेव की भूमिका से संबंधित है।
संक्षेप में, सर्ग सृष्टि की उत्पत्ति है, और विसर्ग सृष्टि का विस्तार है।