” जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है, बाहर भीतर पानी ।
फूटा कुम्भ जल जलहीं समाना, यह तथ कथौ गियानी।”
— कबीर दास
अर्थ :- जिसप्रकार सागर में मिट्टी का घड़ा डुबोने पर उसके अन्दर – बाहर पानी ही पानी होता है , मगर फिर भी उस घट ( कुम्भ ) के अन्दर का जल बाहर के जल से अलग ही रहता है , इस पृथकता का कारण उस घट का रूप तथा आकार होते हैं, लेकिन जैसे ही वह घड़ा टूटता है , पानी पानी में मिल जाता है , सभी अंतर लुप्त हो जाते हैं I ठीक उसी प्रकार यह विश्व ( ब्रह्माण्ड ) सागर समान है, चहुँ ओर चेतनता रूपी जल ही जल है, तथा हम जीव भी छोटे – छोटे मिट्टी के घड़ों समान हैं ( कुम्भ हैं ), जो पानी से भरे हैं , चेतना – युक्त हैं तथा हमारे शरीर रूपी कुम्भ को विश्व रूपी सागर से अलग करने वाले कारण हमारे रूप – रंग – आकार – प्रकार ही हैं , इस शरीर रूपी घड़े के फूटते ही अन्दर – बाहर का अंतर मिट जाएगा, पानी पानी में मिल जाएगा, जड़ता के मिटते ही चेतनता चारों ओर निर्बाध व्याप्त हो होगी, सारी विभिन्नताओं को पीछे छोड़ आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाएगी I
कुम्भे त्रिवेणीसंगमे पवित्रे,
मज्जनं कृत्वा नाशिताः दुरितानि।
विकार अहंकार कुविचार हर्ता,
कुम्भं नमस्यामि पुनः पुनः।।
अर्थात- कुम्भ में त्रिवेणी संगम के पवित्र जल में स्नान कर के मेरे समस्त विकार , अहंकार व कुविचार नष्ट हो गए हैं , ऐसे कुम्भ पर्व को मेरा बारम्बार नमस्कार ।।