अद्वैत का अधिष्ठान (स्थापन) का अर्थ है अपने जीवन में अद्वैत के सिद्धांतों को पूर्ण रूप से अपनाना और इसे अनुभव के स्तर तक ले जाना। इसका उद्देश्य आत्मा और ब्रह्म की एकता को न केवल बौद्धिक रूप से समझना बल्कि इसे अपनी चेतना और दैनिक जीवन में स्थिर करना है। इसके लिए एक स्पष्ट मार्गदर्शन और अभ्यास आवश्यक है।
अद्वैत का अधिष्ठान कैसे करें?
1. सत्संग और ज्ञान की प्राप्ति
अद्वैत वेदांत की शिक्षाओं का अध्ययन करें। उपनिषद, भगवद गीता और ब्रह्मसूत्र जैसे ग्रंथों का गहन अध्ययन करें।
योग्य गुरु का मार्गदर्शन प्राप्त करें, जो आपकी शंकाओं का समाधान कर सके और सत्य के प्रति आपको मार्गदर्शित कर सके।
सत्संग (संतों और ज्ञानी व्यक्तियों का संग) के माध्यम से अद्वैत के विचारों को गहराई से समझें।
2. विवेक और वैराग्य का विकास करें
विवेक: शाश्वत (अविनाशी) और अशाश्वत (नश्वर) के बीच भेद करें। शरीर, मन और संसार की वस्तुएं नश्वर हैं, जबकि आत्मा शाश्वत है।
वैराग्य: संसार के भौतिक सुखों और इच्छाओं से विरक्ति प्राप्त करें। यह संसार माया है, इसे समझें और इससे ऊपर उठें।
3. ध्यान और आत्मचिंतन
नियमित ध्यान का अभ्यास करें। ध्यान के माध्यम से अपने “मैं” (अहं) को त्यागें और शुद्ध चेतना का अनुभव करें।
आत्मा पर चिंतन करें। विचार करें कि “मैं शरीर नहीं हूं, मैं मन नहीं हूं, मैं शुद्ध चैतन्य हूं।”
“अहं ब्रह्मास्मि” और “तत्त्वमसि” जैसे महावाक्यों पर मनन करें।
4. मिथ्या और सत्य का बोध
संसार की अस्थायी वस्तुओं और घटनाओं को मिथ्या (माया) मानें।
सत्य केवल ब्रह्म है, इसे समझें और इसे अपनी दृष्टि का आधार बनाएं।
5. षट्संपत्ति (छह साधन)
शम: मन को शांत करना।
दम: इंद्रियों पर नियंत्रण।
उपरति: संसार के कार्यों में आसक्ति का त्याग।
तितिक्षा: सहनशीलता।
श्रद्धा: गुरु और शास्त्रों में विश्वास।
समाधान: ब्रह्म पर मन का स्थिर होना।
6. मुमुक्षुत्व (मोक्ष की तीव्र इच्छा)
अपने जीवन का लक्ष्य मोक्ष (आत्मा की मुक्ति) को बनाएं।
अपनी सभी क्रियाओं और साधनाओं को आत्मज्ञान प्राप्त करने की दिशा में केंद्रित करें।
7. द्वैत का त्याग
“मैं” और “तुम” का भेद समाप्त करें। यह समझें कि ब्रह्म से अलग कुछ भी नहीं है।
हर चीज में ब्रह्म को देखना शुरू करें।
सभी में समान भाव रखें; मित्र-शत्रु, सुख-दुख, लाभ-हानि में भेदभाव न करें।
अहंकार और स्वार्थ को त्यागें।
करुणा, प्रेम, और अनासक्ति के साथ जीवन जिएं।
अपने कर्मों को ईश्वर को समर्पित करें और फल की चिंता छोड़ दें।