सप्त मातृका

सप्त मातृका
‘मातृका’ का मूल शब्द ‘मातृ’ है जिसका अर्थ है ‘माँ’। यह माना जाता है कि उनमें वह शक्ति है जो मातृ गुणों का प्रतीक है और इस ब्रह्मांड की सभी शक्तियों की रक्षक, प्रदाता और पालनकर्ता भी है। जैसे पृथ्वी की हर चीज सूर्य से अपनी स्रोत ऊर्जा प्राप्त करती है, वैसे ही ब्रह्माण्ड की सभी ऊर्जाएं अपनी शक्ति मातृकाओं से प्राप्त करती हैं। मातृकाओं की तंत्र-विद्या में एक बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका है क्योंकि उनमें जन्मजात क्षमता है, जिस के फलस्वरूप वह स्वयं का प्रतिरूप बना सकती है और उनके प्रतिरूप भी अन्य शक्तियों और रूपों को जन्म दे सकते हैं। वह अपने सूक्ष्म रूप में हर जगह और हर चीज में है लेकिन यह मान्यता है कि वे अपने प्रकट रूप में ब्रह्मांड में उपस्थित है और आठ दिशाओं पर शासन करती है जो अनंत का भी प्रतीक है।
मार्कण्डेय पुराण में वर्णन मिलता है कि सप्तमातृकाओं की सहायता से चण्डिका देवी ने रक्तबीज का वध किया था। ये सात देवियां अपने पतियों के वाहन तथा आयुध के साथ यहां उपस्थित होती है ‘यस्य देवस्य यत्रूपं यथाभूषण वाहनम्’। ये सात देवियां ब्रह्माणी, वैष्णवी, माहेश्वरी, इन्द्राणी, कौमारीय, वाराही और नरसिंही है।
भारत में सप्तमातृकाओं की एकल व संयुक्त प्रतिमाएं मुख्यत: तीन रूपों में पायी जाती हैं-
1. स्थानक यानी खड़ी प्रतिमा,
2. आसनस्थ यानी बैठी हुई प्रतिमाएं,
3. नृत्यरत प्रतिमा।
वराह पुराण में कहा गया है कि मातृकायें आत्म ज्ञान हैं, जो अज्ञानता रूपी अंधकासुर के विरूद्ध युद्ध करती हैं। पुराणों में यह भी कहा गया है कि मातृकायें शरीर के मूल जीवंत अस्तित्व पर शासन करती हैं।
चित्र – सरस्वती नदी कालीन (तथाकथित सिंधु घाटी सभ्यता ) सील , जिसमे पीपल के पत्ते पर श्रीकृष्ण , श्रीकृष्ण का श्रृंगी रूप तथा नीचे सप्त मातृकाएं
DrAshok Kumar Tiwari

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