भगवान श्रीकृष्ण सभी 16 कलाओं के स्वामी हैं। चंद्रमा की सोलह कलाएं होती हैं। उपनिषदों अनुसार 16 कलाओं से युक्त व्यक्ति ईश्वरतुल्य होता है।
कुमति, सुमति, विक्षित, मूढ़, क्षित, मूर्च्छित, जाग्रत, चैतन्य, अचेत आदि शब्दों का संबंध हमारे मन और मस्तिष्क से होता है, जो व्यक्ति मन और मस्तिष्क से अलग रहकर बोध करने लगता है वहीं 16 कलाओं में गति कर सकता है।
चन्द्रमा की सोलह कलाओं के नाम हैं – अमासी, अमृत, मनदा, पुष्प, पुष्टि, तुष्टि, ध्रुति, शाशनी, चंद्रिका, कांति, ज्योत्सना, श्री, प्रीति, अंगदा, पूर्ण और पूर्णामृत। इसी को अमावस्या प्रतिपदा, दूज, एकादशी, पूर्णिमा आदि भी कहा जाता है।
उक्तरोक्त चंद्रमा के प्रकाश की 16 अवस्थाएं हैं ।उसी तरह मनुष्य के मन में भी एक चंद्रमा है। मन को चंद्रमा के समान ही माना गया है। जिसकी अवस्था घटती और बढ़ती रहती है। चंद्र की इन सोलह अवस्थाओं से 16 कला का चलन हुआ। व्यक्ति का देह को छोड़कर पूर्ण प्रकाश हो जाना ही प्रथम मोक्ष है।
सोलह कलाओं का अर्थ संपूर्ण बोधपूर्ण ज्ञान से है। मनुष्य ने स्वयं को तीन अवस्थाओं से आगे कुछ नहीं जाना और न समझा। प्रत्येक मनुष्य में ये 16 कलाएं सुप्त अवस्था में होती है। अर्थात इसका संबंध अनुभूत यथार्थ ज्ञान की सोलह अवस्थाओं से है।
16 कलाओं के नाम-
इन सोलह कलाओं के नाम अलग-अलग ग्रंथों में अलगे अलग मिलते हैं।
1. अन्नमया, 2. प्राणमया, 3. मनोमया, 4. विज्ञानमया, 5. आनंदमया, 6. अतिशयिनी, 7. विपरिनाभिमी, 8. संक्रमिनी, 9. प्रभवि, 10. कुंथिनी, 11. विकासिनी, 12. मर्यदिनी, 13. सन्हालादिनी, 14. आह्लादिनी, 15. परिपूर्ण और 16. स्वरुपवस्थित।
अन्यत्र 1. श्री, 2. भू, 3. कीर्ति, 4. इला, 5. लीला, 6. कांति, 7. विद्या, 8. विमला, 9. उत्कर्शिनी, 10. ज्ञान, 11. क्रिया, 12. योग, 13. प्रहवि, 14. सत्य, 15. इसना और 16. अनुग्रह।
कहीं पर 1. प्राण, 2. श्रद्धा, 3. आकाश, 4. वायु, 5. तेज, 6. जल, 7. पृथ्वी, 8. इन्द्रिय, 9. मन, 10. अन्न, 11. वीर्य, 12. तप, 13. मन्त्र, 14. कर्म, 15. लोक और 16. नाम।
16 कलाओं का रहस्य :
16 कलाएं दरअसल बोध प्राप्त योगी की भिन्न-भिन्न स्थितियां हैं। बोध की अवस्था के आधार पर आत्मा के लिये प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक चन्द्रमा के प्रकाश की 15 अवस्थाएं ली गई हैं। अमावास्या अज्ञान का प्रतीक है तो पूर्णिमा पूर्ण ज्ञान का।
आत्मा की सबसे पहली कला ही विलक्षण है। इस पहली अवस्था या उससे पहली की तीन स्थिति होने पर भी योगी अपना जन्म और मृत्यु का दृष्टा हो जाता है और मृत्यु भय से मुक्त हो जाता है। सोलहवीं कला पहले और पन्द्रहवीं को बाद में स्थान दिया है। इससे निर्गुण सगुण स्थिति भी सुस्पष्ट हो जाती है। सोलह कला युक्त पुरुष में व्यक्त अव्यक्त की सभी कलाएं होती हैं। यही दिव्यता है।