पंचांग : भाग -1

 

विश्व का सर्वाधिक वैज्ञानिक कलेंडर है हमारा पंचांग : भाग -1

 

संसार का निर्माण ईश्वर ने बहुत ही सोच-समझ कर
संतुलन के आधार पर किया है. पूरे ब्रह्मांड की एक-एक वस्तु
, एक-एक कण ईश्वर द्वारा निर्धारित नियमों के अंतर्गत
चल रहा है.

अनादिकाल से यह क्रम चलता आ रहा है, क्योंकि प्रत्येक वस्तु तथा खगोलीय पिंड जैसे गृह ,
नक्षत्र , उपग्रह , सूर्य , तारे आदि सभी अपने –अपने  गति के अनुरूप नियमानुसार चल रहें है. यही कारण
है कि इस संसार की व्यवस्था कभी भंग नहीं होती. व्यवस्था भंग वहां होती है
, जहां कोई नियम न हो, कोई बंधन न हो, प्रत्येक व्यक्ति
स्वतंत्र और स्वच्छंद हो
, लेकिन जहां व्यवस्था
होती है
, वहां कोई स्वच्छंदता नहीं होती, सर्वत्र नियम होता है. प्राकृतिक नियम सूर्य चन्द्र
ग्रहों उपग्रहों नक्षत्रो पर भी लागू होते है .

प्रकृति के इन नियमों को गणित के सूत्र में बांध कर
चार्ट में परिवर्तित कर देना एक असंभव कार्य है. किन्तु प्राचीन काल में हमारे ऋषि
मुनियों ने यह असंभव कार्य कर दिखाया . प्रकृति के सूक्ष्म निरीक्षण द्वारा ही हिन्दू
कलेंडर अर्थात पंचांग की गणित का उद्भव हुआ. भारत में पंचांग का प्रथम अस्तित्व कब
से है , यह बताना कठिन है . संभवतः ऋग्वेदिक काल के बाद और याजुर्वेदिक काल के
पूर्व पूर्ण विकसित सौर वर्षीय पंचांग का उपयोग होने लगा था. 

भारतीय कैलन्डर को
पंचांग या पत्रा कहा जाता है . पंचांग का अर्थ है – पांच अंग . भारतीय कैलन्डर के पांच
अंग हैं – तिथि , वार , नक्षत्र , योग एवं करण
. इसके अतिरिक्त पंचांगों
में सूर्योदय / सूर्यास्त का समय , चन्द्र उदय/अस्त का समय , ग्रहों की आकाश में
स्तिथी तथा अन्य खगोलीय जानकारी होती है. आधुनिक पंचांग में सम्बंधित अंग्रेजी डेट
व मुस्लिम तारीख भी दी जाती है . सर्वप्रथम हम पंचांग के इन पाचों अंगो को समझने
का प्रयास करेंगे –

1. तिथि तिथि को हम अंग्रेजी डेट या मुस्लिम तारीख के
समयकाल के समानार्थी मानते हैं . जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है . तिथि की परिभाषा
के अनुसार चंद्रमा और सूरज के देशांतर के अंशों में अंतर को तिथि कहते है . अगर यह
अंतर 0 से 12 डिग्री तक है तो इसे प्रथम तिथि (प्रतिपदा या परेवा) कहेंगे . अगर यह
अंतर
12 से 24 डिग्री तक है तो इसे दूसरी तिथि (द्वितीया ) … इसी प्रकार चतुर्थी , पंचमी
, षष्ठी , सप्तमी , अष्टमी , नवमी , ….एकादशी , पूर्णिमा , अमावस्या आदि. इस
प्रकार एक चन्द्र मास में 30 तिथियाँ होती है.

यह स्पष्ट है कि दिन
के किसी भी समय सूर्य चन्द्र के कोण में 12 डिग्री परिवर्तन के कारण तिथि में
परिवर्तन हो सकता है . अर्थात शाम को चार बज
के 43 मिनट पर सप्तमी तिथि
समाप्त हो कर अष्टमी तिथि लग सकती है . इसलिए पंचांग में तिथि का अंत समय दिया
रहता है . यह समय विपल , पल और घटी में दिया जाता है. [ 1 घटी = एक दिन अर्थात
24 घंटे का 1/60 वा हिस्सा , पल = घटी का
1/
60 वां हिस्सा , विपल = 1 पल का 1/60 वा हिस्सा ] . पंचांग में समय का प्रारंभ उस दिन के सूर्योदय से माना जाता है
. उदाहरणार्थ यदि पंचांग में सप्तमी तिथि के सामने 4 घटी
51 पल लिखा है तो इसका मतलब है
की उस
दिन सप्तमी सूर्योदय के 4 घटी 51 पल बाद समाप्त हो जायेगी और अष्टमी लग जायेगी . भारतीय पंचांग में दो तरह की
तिथियाँ है – सामान्य लोगों हेतु तिथि तथा खगोलशास्त्रीय तिथि. सामान्य व्यव्हार
में प्रत्येक तिथि सूर्योदय से अगले दिन के सूर्योदय तक चलती रहेगी , परन्तु
खगोलशास्त्रीय तिथि दिन के दिए गए समय पर समाप्त हो जायेगी . दिए गए उदाहरण में एक
खगोलशास्त्री के लिए सप्तमी सूर्योदय के 4 घटी 51 पल बाद समाप्त हो जायेगी जबकि आम
जनों के लिए सप्तमी अगले दिन सूर्योदय तक चलेगी . खगोलशास्त्री और आमजनों के समय
का अदभुत तालमेल है भारतीय पंचांग .

यद्यपि विपल से भी
छोटी समय मापन की व्यवस्था भी भारतीय खगोलशास्त्र एवं पंचांग में है जिनको क्षण,
लव, त्रुटी व कृति कहा जाता है . किन्तु उसका उपयोग आमजन के लिए नहीं है .

चन्द्रमा और सूर्य
की गति अंडाकार कक्षा तथा गुरुत्व के कारण सदैव एकसमान नहीं होती इसलिए प्रत्येक खगोलशास्त्रीय
तिथि का काल बराबर नहीं हो सकता. इसके गणना के लिए ज्योतिषीगण  आर्यभट्ट के नियम (
आर्यभटीयम के अध्याय 3 का 17 ) का उपयोग करते है  (जिसे स्कूलों
कालेजो में केप्लर के नियम के नाम से पढाया जाता है ). जबकि आमजन की तिथि सूर्योदय
से अगले सूर्योदय तक निश्चित की गयी है , अतः खगोलशास्त्रीय तिथि आमजन की तिथि से
कम अथवा अधिक समयांतराल की हो सकती है . यह भी हो सकता है की कोई खगोलशास्त्रीय
तिथि सूर्योदय होने के कुछ क्षण बाद ही समाप्त हो जाए और या फिर अगले सूर्योदय के
पहले ही शुरू हो जाए . कोई खगोलशास्त्रीय तिथि 24 घंटे से कम अवधि की भी हो सकती है
, और कोई कोई खगोलशास्त्रीय तिथि 24 घंटे से जादा समय की भी हो सकती है इसलिए आमजन
की तिथि से इसका बेहतरीन एडजस्टमेंट पंचांग में किया जाता है . यह पंचांग
निर्माताओं की अतिमेघावी बुद्धि है कि किसी वार (उदाहरण गुरूवार) को दो तिथियाँ हो
सकती है और किसी दो वारों  (उदाहरण गुरूवार
और शुक्रवार) को एक ही तिथि हो सकती है .

एक चंद्रमास 27.321661 दिनों  (27 दिन  घंटे  43 मिनट  11.6 सेकंड ) का होता है जबकि पंचांग में एक मास में 30 तिथि होती है . अतः पंचांगकर्ता को
इसका भी एडजस्टमेंट करना होता है . इसलिये माह में एक वार में दो तिथियाँ जादा बार
आती है और दो दिनों तक एक तिथि कम बार आती है .

 

जब अंगेज भारत आये
तो आम भारतीयों के त्यौहार व्रत पूजन आदि की सम्पूर्ण भारत में एक ही तिथि  की देख कर आश्चर्यचकित हुए . उन्होंने भारतीय
कलेंडर का अध्ययन करने के लिए अंग्रेज विद्वान और वैज्ञानिकों की समिति बनायी .
समिति ने अध्ययन कर अंग्रेज सरकार को बताया कि “ अलग अलग शहरों में रहने वाले हिन्दू
अपने अपने क्षेत्र का पंचांग फॉलो करते है. जैसे काशी का पंचांग , उज्जैन का पंचांग
, पुरी का पंचांग , मदुरै का पंचांग , तिरुपति का पंचांग , काबुल का पंचांग ,
ऋषिकेश का पंचांग आदि .  यद्यपि ये सब पंचांग
अलग अलग शहरों में अलग अलग ब्राह्मणों द्वारा बनाये जाते है जिनमे आपस में कोई
संपर्क नहीं रहता किन्तु आश्चर्यजनक रूप से सभी पंचांग एक हीं हैं !!! ये सभी एक
ही सिद्धांत की अनुपालना करते है . सभी पंचांगों की काल गणना एक ही तिथि से आरम्भ
होती है जिसे ये कलयुग के प्रारंभ की तिथि कहते है . इनमे सूर्योदय और सूर्यास्त
का स्थानिक समय भी दिया जाता है. इसलिए इन हिन्दुओं को दैनिक जीवन में कोई असुविधा
भी नहीं होती , और पूरे देश में एक ही कलेंडर चलता है    

माह में तिथि 1 से
तीस तक होती हैं किन्तु इनको पुनः 1 से १५ (कृष्ण पक्ष) और 1 से १५ (शुक्ल पक्ष )
में बाँट दिया गया है .

2. वार – वार का अर्थ है सप्ताह का दिन . एक सूर्योदय से दूसरे दिन के सूर्योदय तक की कालावधि
को वार कहते हैं.
एक हफ्ते में सात दिन की अवधारणा हमारे सात ग्रहों को लेकर
बनाई गई है.
दरअसल
ज्योतिष में ग्रहों की संख्या नौ मानी गई है
. जो इस प्रकार हैं चंद्र, मंगल, बुध, बृहस्पति , शुक्र, शनि , सूर्य, राहू और केतु.  

 

इनमें से राहू और केतु को छाया
ग्रह माना गया है. इसलिए इनका प्रभाव हमारे जीवन पर छाया के समान ही पड़ता है.
इसलिए उस समय ज्योतिषाचार्यों ने ग्रहों के आधार पर सप्ताह में सात दिन निर्धारित
किए. लेकिन उसके बाद समस्या यह थी कि किस ग्रह का दिन कौन सा माना जाए तो प्राच्य ज्योतिषियों
ने होरा के उदित होने के अनुसार दिनों को बांटा.

 

एक दिन में 24 होरा होती है. हर होरा एक घंटे की होती है. संस्कृत
के ‘होरा’ शब्द से ही अंग्रेजी का ‘hour’ शब्द बना . दिन उदित होने के साथ जिस
ग्रह की आकाश में पहली होरा होती है. वह दिन उसी ग्रह का माना जाता है. सोमवार के
दिन की शुरूआत चंद्र की होरा के साथ होता है.इसीलिए उसे सोमवार नाम दिया गया.

मंगलवार के दिन पहली होरा मंगल
की होती है इसीलिए उसे मंगलवार कहते है. इसी तरह बुध
, गुरू,
शुक्र, शनि,
रवि, की शुरू आत इन्ही ग्रहों के अनुसार होती है. इस तरह
सात ग्रहों की होरा उदित होने के कारण उस दिन को उस ग्रह का प्रधान मानकर उसका नाम
दिया गया. इसीलिए सप्ताह में सात दिन होते हैं. भारत से यह कांसेप्ट बेबीलोन गया
जहा इसे बेबीलोनियन कलेंडर में शामिल किया गया . कुछ शताब्दियों पश्चात् बेबीलोन
से सप्ताह में सात दिन की विचारधारा को ग्रीस और रोमन सभ्यता ने अपनाया .

3. नक्षत्र – नक्षत्र का मतलब है – चन्द्रमा
की आकाशमंडल में स्तिथि . चूंकि चन्द्रमा का परिभ्रमण काल लगभग 27 दिन का है अतः
आकाशमंडल के 27 हिस्से करने पर प्रत्येक हिस्सा एक नक्षत्र कहलाता है . इनके नाम
अश्विनी , भरिणी …. आदि है . अन्तरिक्ष मंडल में मेष राशी का पहला बिंदु और
अश्विनी नक्षत्र का पहला बिंदु आपस में मिले हुए होते हैं . जब हम कहते हैं कि
भगवान कृष्ण रोहिणी नक्षत्र में जन्मे थे , इसका मतलब यह है कि भगवान कृष्ण के
जन्म के समाया चन्द्रमा आकाश में रोहिणी नक्षत्र के हिस्से में था. किन्तु मौसम
सम्बन्धी गणना में सूर्य की स्तिथि देखते है अर्थात जब हम कहते हैं कि आद्रा
नक्षत्र में वर्षा होती है तो इसका मतलब है कि जब सूर्य आद्रा नक्षत्र में होगा तब
वर्षा होती है.  जिस समय चन्द्र एक नक्षत्र
पार कर दूसरे नक्षत्र में जाता है वह समय पंचांग में लिखा रहता है .

 

4. योग – पंचांग में सूर्य और चन्द्रमा के देशान्तरों के अंतर का जोड़ योग कहलाता है .
योगों की संख्या 27 है . इनके नाम 1-
विष्कुम्भ ,
2-प्रीति , 3- आयुष्मान आदि हैं . योग की गणना करने के लिए ज्योतिषी सूर्य और चन्द्रमा
के देशान्तरों के अंतर का जोड़कर उसे आर्क के कोण के रूप में परिवर्तित कर 800 का
भाग देते हैं . भागफल से एक अधिक पूर्णांक उस योग का क्रमांक होता है . उदाहरणार्थ
किसी समय सूर्य का देशांतर अ है और चन्द्र का ब है , यहाँ अ और ब आर्क के कोण के
रूप में लिखे गए हैं . अ + ब करके इसे 800 से भाग देने पर मान लिया
1.438 आया तो इसका अगला पूर्णांक
2 हुआ अर्थात यह प्रीती योग कहलायेगा .

पंचांग में योग समाप्ति का समय दिया रहता है . योग का पंचांग में उपयोग तिथि
और नक्षत्र पर तिर्यक जांच (क्रॉसचेक) है . योग से ही पंचांग की शुद्धता चेक की
जाती है और अगर कहीं त्रुटी है तो उसका सुधार हो जाता है .

5- करण – तिथि के आधे भाग को
करण कहते हैं, अर्थात् एक तिथि में दो करण होते हैं .करणों के नाम
1. बव 2.बालव 3.कौलव…आदि
है. यदि 30 तिथियाँ है तो 60 करण होने चाहिए किन्तु ऐसा नहीं है . करण सिर्फ 11
हैं और ये 30 दिन में बार बार आते हैं . 7 करण ऐसे है जो 8 बार आते है (अर्थात 56
अर्ध तिथि ) अब बचे हुए 4 करण एक एक बार ही आते हैं .

पंचांग में करण का क्या काम है ? यह रहस्यमय है . करण का उपयोग उच्च खगोलशास्त्री
ग्रहों की पश्चगामी गति (
Retrograde motion) निकालने के लिए करते हैं तो कुछ खगोलशास्त्री करण से
precision of equinox की गणना करते हैं . आमजन, पंडित अथवा सामान्य ज्योतिषी के लिए करण की
उपयोगिता नहीं है . यद्यपि कतिपय अन्धविश्वासी इसका उपयोग शुभ अशुभ मुहूर्त बताने
में करते हैं .

गृहों  , नक्षत्रों 
, उपग्रहों  , सूर्य , तारों आदि की
गति , स्तिथि एवं काल की गणना करने के लिए और पंचांग बनाने के लिए वेधशालाओं की
जरूरत होती है . पूर्व काल में राजा-महाराजा 
खगोलीय वेधशालाओं का निर्माण कराते थे ताकि ब्राह्मणवर्ग  उनमे जा कर गृहों  , नक्षत्रों 
, उपग्रहों  , सूर्य , तारों आदि की
गति , स्तिथि एवं काल का अध्ययन और गणना कर सकें एवं सटीक पंचांग बना सकें . ऐसी
अनेक खगोलीय वेधशालाये देशभर में होती थीं जो सल्तनत काल से रखरखाव के अभाव में
अनुपयोगी हो गयी. जिन्हें मुग़ल काल से जंतर – मंतर कहा जाने लगा  . जयपुर , दिल्ली , उज्जैन आदि कई शहरों में
प्राचीन जंतर-मंतर के अवशेष हैं. जो कि वर्तमान में पुरातत्व विभाग के आधीन है एवं
पर्यटन के लिए उपयोग किये जाते हैं . दिल्ली की क़ुतुब मीनार और उसके चारों तरफ
ध्वस्त  27 नक्षत्र मंदिर भी प्राचीन
खगोलीय वेधशाला ही है. किन्तु आज की सरकारें प्राचीन वैदिक पद्धति की खगोलीय
वेधशालाओं का निर्माण नहीं करातीं . फलस्वरूप पंचांग निर्माताओं को नासा या इसरो
के आंकड़े ले कर पंचांग बनाना पड़ रहा है .

 

 

 

 

 

भारत सरकार ने अपने संविधान में 1957 में शक संवत पर आधारित कलेंडर को शामिल किया . जबकि मदन मोहन मालवीय , सी
राजगोपालाचारी , श्यामा प्रसाद मुखर्जी , डा. राधाकृष्णन आदि विक्रम संवत पर
आधारित कलेंडर को शामिल करना चाहते थे . किन्तु नेहरु जी ने शक संवत पर आधारित
कलेंडर को हरी झंडी दे दी , जिसे कम्युनिस्ट विचारधारा वाले वैज्ञानिक मेघनाथ साहा
ने प्रस्तावित किया था . उत्तर भारत के अधिकांश लोग सम्राट विक्रमादित्य का चलाया
हुआ विक्रम संवत उपयोग करते थे . शक लोग विदेशी आक्रमणकारी थे , भारतीय जनमानस में
इनकी छवि अच्छी नहीं थी इसलिए शक संवत पर आधारित भारत का राष्ट्रीय कलेंडर
लोकप्रिय न हो सका और आमजन के समस्त कार्यों और सरकारी दफ्तरों में अंग्रेजी
कलेंडर का ही उपयोग चल रहा है .

अगला भाग 

[ अगले भाग में पंचांग में लग्न , हिन्दू मास , संवत और कुंडली की वैज्ञानिकता
] 

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