दुर्गा सप्तशती वर्णित असुरों का मूल

 दुर्गा सप्तशती वर्णित असुरों का मूल

असुरों का मूल केन्द्र मध्य-युग में असीरिया कहा जाता था, जो आजकल सीरिया तथा इराक हैं। इस सभ्यता की प्राचीनता 10000 BC तक जाती है । 2500 BC में इसकी राजधानी असुर ASSUR थी, जो वर्तमान इराक का प्राचीनतम नगर है।
महिषासुर के बारे में प्राचीन ग्रंथों में भी स्पष्ट लिखा है कि वह पाताल (भारत के विपरीत क्षेत्र दक्षिण अमेरिका ) का था। उसे चेतावनी भी दी गयी थी कि यदि जीवित रहना चाहते हो तो पाताल लौट जाओ-
यूयं प्रयात पाताल यदि जीवितुमिच्छथ (दुर्गा सप्तशती 8/26)। इसी अध्याय में (श्लोक 4-6) असुरों के क्षेत्र तथा भारत के सीमावर्त्ती क्षेत्र कहे गये हैं जहां असुरों का आक्रमण हुआ था-कम्बू-आजकल कम्बुज कहते हैं जिसे अंग्रेज कम्बोडिया कहते हैं। कोटि-वीर्य = अरब देश। कोटि = करोड़ का वीर्य (बल) 100 कोटि = अर्व तक है अतः इसे अरब कहते हैं। धौम्र (धुआं जैसा) को शाम (सन्ध्या = गोधूलि) कहते थे जो एशिया की पश्चिमी सीमा पर सीरिया का पुराना नाम है। शाम को सूर्य पश्चिम में अस्त होता है अतः एशिया का पश्चिमी सीमा शाम (सीरिया) है।

इसी प्रकार भारत की पश्चिमी सीमा के नगर सूर्यास्त (सूरत) रत्नागिरि (अस्ताचल = रत्नाचल) हैं। कालक = कालकेयों का निवास काकेशस (कज्जाकिस्तान,उसके पश्चिम काकेशस पर्वतमाला), दौर्हृद (ह्रद = छोटे समुद्र, दो समुद्र भूमध्य तथा कृष्ण सागरों को मिलानेवाला पतला समुद्री मार्ग) = डार्डेनल (टर्की तथा इस्ताम्बुल के बीच का समुद्री मार्ग)।
इसे बाद में हेलेसपौण्ट (ग्रीक में सूर्य क्षेत्र) भी कहते थे, क्योंकि यह उज्जैन से ठीक 7 दण्ड = 42 अंश पश्चिम था। प्राचीन काल में लंका तथा उज्जैन से गुजरने वाली देशान्तर रेखा को शून्य देशान्तर रेखा मानते थे तथा उससे 1-1 दण्ड अन्तर पर विश्व में 60 क्षेत्र थे जिनके समय मान लिये जाते थे। ये सूर्य क्षेत्र थे क्योंकि सूर्य छाया देखकर अक्षांश-देशान्तर ज्ञात होते हैं। आजकल 48 समय-भाग हैं। मौर्य = मुर असुरों का क्षेत्र। मोरक्को के निवासियों को आज भी मुर कहते हैं। मुर का अर्थ लोहा है, मौर्य (मोरचा) के दो अर्थ हैं, लोहे की सतह पर विकार या युद्ध-क्षेत्र (लोहे के हथियारों से युद्ध होते हैं)।
जंग शब्द के भी यही 2 अर्थ हैं। कालकेय = कालक असुरों की शाखा। मूल कालक क्केशस के थे, उनकी शाखा कज्जाक हैं। इसके पूर्व साइबेरिया (शिविर) के निवासी शिविर (टेण्ट) में रहते थे तथा ठण्ढी हवा से बचने के लिये खोल पहनते थे, अतः उनको निवात-कवच कहते थे। अर्जुन ने उत्तर दिशा के दिग्विजय में कालकेयों तथा निवातकवचों को पराजित किया था (3145 ई.पू) जब आणविक अस्त्र का प्रयोग हुआ था जिसका प्रभाव अभी भी है।
यहां देवी को देवताओं की सम्मिलित शक्ति कहा गया है (अध्याय 2, श्लोक 9-31)। आज भी सेना, वाहिनी आदि शब्द स्त्रीलिंग हैं। उनके अनुकरण से अंग्रेजी का पुलिस शब्द भी स्त्रीलिंग है।
दुर्गा सप्तशती अध्याय 11 में बाद की घटनायें भी दी गयी हैं। श्लोक 42-नन्द के घर बालिका रूप में जन्म (3228 ई.पू.) जो अभी विन्ध्याचल की विन्ध्यवासिनी देवी हैं। विप्रचित्ति वंशज दानव (श्लोक 43-44)-असुरों की दैत्य जाति पश्चिम यूरोप में थी, जो दैत्य = डच, ड्यूट्श (नीदरलैण्ड, जर्मनी) आदि कहते हैं। पूर्वी भाग डैन्यूब नदी का दानव क्षेत्र था।
दानवों ने मध्य एशिया पर अधिकार कर भगवान् कृष्ण के समय कालयवन के नेतृत्व में आक्रमण किया था। इसके बाद (श्लोक 46) 100 वर्ष तक पश्चिमोत्तर भारत में अनावृष्टि हुयी थी (2800-2700 ई.पू.) जिसमें सरस्वती नदी सूख गयी तथा उससे पूर्व अतिवृष्टि के कारण गंगा की बाढ़ में पाण्डवों की राजधानी हस्तिनापुर पूरी तरह नष्ट हो गयी जिसके कारण युधिष्ठिर की 8वीं पीढ़ी के राजा निचक्षु को कौसाम्बी जाना पड़ा। उस समय शताक्षी अवतार के कारण पश्चिमी भाग में भी अन्न की आपूर्त्ति हुयी तथा असुरों को आक्रमण का अवसर नहीं मिला।
उसके बाद नबोनासिर (लवणासुर) आदि के नेतृत्व में असुर राज्य का पुनः उदय हुआ (प्रायः 1000 ई.पू.) जिनको दुर्गम असुर (श्लोक 49) कहा गया है। उनके कई आक्रमण निष्फल होने पर उनकी रानी सेमिरामी ने सभी क्षेत्रों के सहयोग से 35 लाख सेना एकत्र की तथा प्रायः 10000 नकली हाथी तैयार किये (ऊंटों पर खोल चढ़ा कर)। इस आक्रमण के मुकाबले के लिये आबू पर्वत पर पश्चिमोत्तर के 4 प्रमुख राजाओं का संघ बना-इसके अध्यक्ष शूद्रक ने उस अवसर पर 756 ई.पू. में शूद्रक शक चलाया।
ये 4 राजा देशरक्षा में अग्री (अग्रणी) होने के कारण अग्निवंशी कहे गये-परमार, प्रतिहार, चाहमान, चालुक्य। यह मालव-गण था जो श्रीहर्ष काल (456 ई.पू.) तक 300 वर्ष चला। इसे मेगास्थनीज ने 300 वर्ष गणतन्त्र काल कहा है।
इस काल में एक और आक्रमण में (824 ई.पू.) में असुर मथुरा तक पहुंच गये जिनको कलिंग राजा खारावेल की गज सेना ने पराजित किया (खारवेल प्रशस्ति के अनुसार उसका राज्य नन्द शक 1634 ई.पू. के 799 वर्ष बाद आरम्भ हुआ और राज्य के 11 वर्ष बाद मथुरा में असुरों को पराजित किया)।
10000 ई.पू. के जल प्रलय के पूर्व खनिज निकालने के लिये देवों और असुरों का सहयोग हुआ था जिसे समुद्र-मन्थन कहते हैं। इसके बाद कार्त्तिकेय का काल 15800 ई.पू. था जब उन्होंने क्रौञ्च द्वीप (उत्तर अमेरिका) पर आक्रमण किया। भारत में समुद्र-मन्थन वर्तमान झारखण्ड से छत्तीसगढ़ तक हुआ। आज भी मथानी का आकार का गंगा तट तक का मन्दार पर्वत है जहा वासुकिनाथ तीर्थ है। वासुकि को ही मथानी कहा गया है-
यह संयोजक थे। मेगास्थनीज ने कार्त्तिकेय के आक्रमण का उल्लेख किया है कि 15000 वर्षों से भारत ने किसी भी दूसरे देश पर अधिकार नहीं किया क्योंकि यह सभी चीजों में स्वावलम्बी था और किसी को लूटने की जरूरत नहीं थी। (यह आक्रमण सिकन्दर से प्रायः 15500 वर्ष पूर्व था)। वही यह भी लिखा है कि भारत एकमात्र देश हैं जहा बाहर से कोई नहीं बसा है। बाद में डायोनिसस या बाकस ने ६७७७ ई.पू. में आक्रमण किया (मेगास्थनीज) जिसमें सूर्यवंशी राजा बाहु मारा गया।
उसके 15 वर्ष बाद उसके पुत्र सगर ने असुरों को भगा दिया। वे अरब क्षेत्र से भाग कर ग्रीस में बसे जब उसका नाम इयोनिआ (हेरोडोटस) = यूनान पड़ा। अतः आज भी झारखण्ड में खनिज निकालने के लिये 15800 ई.पू. में आये असुरों के नाम वही हैं जो ग्रीक भाषा में उन खनिजों के होते हैं-मुण्डा (लोहा, इस क्षेत्र की वेद शाखा मुण्डक, पश्चिम ओड़िशा के मुण्ड ब्राह्मण), खालको (ताम्बे का अयस्क खालको-पाइराइट), ओराम (ग्रीक में सोना =औरम), टोप्पो (टोपाज), सिंकू (टिन का अयस्क स्टैनिक), किस्कू (लोहे के लिये धमन भट्टी) आदि
( Research by Gajraj Soni , S N Mishra etc)

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