Space and Time दिक् और काल

 Space and Time 

दिक् और काल 

विज्ञान में स्पेस और टाइम का कॉन्सेप्ट लगभग 100 वर्ष पूर्व से आया है , किंतु भारतीय दर्शन में यह हजारों वर्षों पूर्व विकसित हो चुका था । पुराणों में कहा गया है – दिक् च कालश्च शक्त्योर्या जगतः कारणं स्मृतम्।”

अर्थात “दिक् और काल दोनों ही शक्ति के रूप में जगत के कारण माने गए हैं।”

यह सूत्र यह बताता है कि दिक् और काल शक्ति के दो रूप हैं, जिनसे समस्त जगत का निर्माण होता है।

उपनिषदों, पुराणों, महाभारत आदि के श्लोकों और सूत्रों से यह स्पष्ट होता है कि दिक् और काल को केवल भौतिक आयाम के रूप में नहीं बल्कि ब्रह्मांड की मूलभूत शक्तियों के रूप में देखा गया है, जिनके प्रभाव में सारा जगत है और जिनसे आत्मा को पार जाना चाहिए।

उपनिषदों में दिक् (अर्थात् “स्पेस”) और काल (अर्थात् “समय”) को भौतिक जगत के महत्वपूर्ण आयामों के रूप में देखा गया है। दोनों की अवधारणा ब्रह्मांड की संरचना और जीवन की वास्तविकता को समझने के लिए महत्वपूर्ण मानी जाती है। इनके परस्पर संबंध को समझना आध्यात्मिक उन्नति के लिए भी महत्वपूर्ण है।

1. दिक् (स्पेस): उपनिषदों के अनुसार, दिक् सभी दिशाओं को इंगित करता है, जिससे यह संपूर्ण ब्रह्मांड का विस्तार या व्याप्ति दर्शाता है। यह किसी एक विशेष दिशा तक सीमित न होकर संपूर्ण जगत में व्याप्त है और सभी वस्तुओं के स्थान और स्थिति को दर्शाता है। यह स्थानिक आयाम (spatial dimension) का प्रतिनिधित्व करता है।

2. काल (समय): काल को परिवर्तन या घटनाओं के क्रम के रूप में देखा गया है। यह निरंतर गतिशील है और इसे किसी बाहरी वस्तु या घटना द्वारा नियंत्रित नहीं किया जा सकता। उपनिषदों में समय को चिरंतन या अनंत कहा गया है। इसे मापा नहीं जा सकता और यह सभी घटनाओं और परिवर्तनों का साक्षी होता है।

“कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा, भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्या।

संयोग एषां न तु आत्मभावाद्, आत्मा ह्यनाश्रयममृतं स्वतन्त्रः॥”(श्वेताश्वतर उपनिषद् 1.2)

 अर्थात –

“समय (काल), स्वभाव, नियति (भाग्य), संयोग, और पुरुष इन तत्वों को ब्रह्मांड के कारणों के रूप में विचार किया गया है। लेकिन ये सब आत्मा का स्वभाव नहीं है, आत्मा इनसे स्वतंत्र, अमर और स्वनियंत्रित है।”

काल का उल्लेख विशेष रूप से गीता के अध्याय 11, श्लोक 32 में मिलता है:

“कालोऽस्मि लोकक्षयकृत् प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः।” अर्थात- “मैं (श्रीकृष्ण) समय हूँ, जो संपूर्ण लोकों का संहार करने वाला हूँ और यहाँ सब कुछ नष्ट करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूँ।”

 महाभारत में एक स्थान पर कहा गया है- 

“कालः पचति भूतानि सर्वाण्येव सह प्रभुः।

कालः संहरते सर्वं कालो हि दुरतिक्रमः॥”

अर्थात- “समय (काल) सभी भूतों को पकाता है और संपूर्ण संसार को संहार करता है। समय को कोई पार नहीं कर सकता।”

3. दिक् और काल का परस्पर संबंध: दिक् और काल के बीच का संबंध अत्यधिक महत्वपूर्ण है। ये दोनों मिलकर भौतिक जगत की संरचना का निर्माण करते हैं। समय के बिना दिशा का कोई महत्व नहीं है, क्योंकि समय ही घटनाओं को क्रमबद्ध करता है। इसी प्रकार, दिक् के बिना समय की माप भी संभव नहीं है, क्योंकि दिक् का निर्धारण स्थान से होता है, जिससे घटनाओं का स्थान-काल संबंध स्थापित होता है। उपनिषदों में यह भी कहा गया है कि दिक् और काल दोनों ही माया का हिस्सा हैं, जो वास्तविकता का बोध कराते हैं लेकिन स्वयं अपार और अनन्त हैं।

प्रकृतिः पंचभूतानि ग्रहा लोकाः स्वरास्तथा ।

दिशः कालश्च सर्वेषां सदा कुर्वन्तु मंगलम् ।। 

अर्थ: प्रकृति  पांच तत्वों अर्थात् अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और अंतरिक्ष के संयोजन से बनी है. ये पांच तत्व, सभी ग्रह और लोक,  संगीत के सात स्वर, दिक और काल हमारा सदा मंगल करें.

4. आध्यात्मिक दृष्टिकोण: उपनिषदों के अनुसार, जब कोई व्यक्ति आत्म-ज्ञान प्राप्त करता है, तो वह दिक् और काल की सीमाओं से परे चला जाता है। उस अवस्था में, वह आत्मा को शाश्वत और सर्वव्यापी (अखंड और अनंत) रूप में देखता है, जो किसी भी स्थान और समय के बंधन से मुक्त होती है।

योग वाशिष्ठ का सूत्र है -चित्तकल्पितमेवेदं दिक्कालाद्यन्यथागतम्।

तस्माच्चित्तमयो बन्धः पुमांस्येनं विवर्जये ।।

अर्थात-  “दिक् और काल मन द्वारा कल्पित हैं। इसलिए, मन ही बंधन का कारण है, और पुरुष को इस मनोवृत्ति को त्यागना चाहिए।”

इस प्रकार, दिक् और काल के परस्पर संबंध को समझना ब्रह्मांडीय समझ और आत्मा की वास्तविकता के प्रति जागरूकता की ओर एक कदम है। दिक् और काल के परे जाकर ही आत्म साक्षात्कार होता है ।

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